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समि॑द्धे अ॒ग्नौ सु॒त इ॑न्द्र॒ सोम॒ आ त्वा॑ वहन्तु॒ हर॑यो॒ वहि॑ष्ठाः। त्वा॒य॒ता मन॑सा जोहवी॒मीन्द्रा या॑हि सुवि॒ताय॑ म॒हे नः॑ ॥३॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

samiddhe agnau suta indra soma ā tvā vahantu harayo vahiṣṭhāḥ | tvāyatā manasā johavīmīndrā yāhi suvitāya mahe naḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सम्ऽइ॑द्धे। अ॒ग्नौ। सु॒ते। इ॒न्द्र॒। सोमे॑। आ। त्वा॒। व॒ह॒न्तु॒। हर॑यः। वहि॑ष्ठाः। त्वा॒ऽय॒ता। मन॑सा। जो॒ह॒वी॒मि॒। इन्द्र॑। आ। या॒हि॒। सु॒वि॒ताय॑। म॒हे। नः॑ ॥३॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:40» मन्त्र:3 | अष्टक:4» अध्याय:7» वर्ग:12» मन्त्र:3 | मण्डल:6» अनुवाक:3» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर राजा और राजा के जन क्या करें, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) अत्यन्त ऐश्वर्य्य के देनेवाले (वहिष्ठाः) अतिशय प्राप्त करानेवाले (हरयः) घोड़ों के सदृश मनुष्य (समिद्धे) उत्तम प्रकार प्रदीप्त (अग्नौ) अग्नि में और (सुते) उत्पन्न हुए (सोमे) बड़ी औषधी के रस में (त्वा) आपको (आ, वहन्तु) सब प्रकार से प्राप्त करावें और हे (इन्द्र) दुःख दारिद्र्य के विदारनेवाले ! जिन (त्वायता) आपको प्राप्त हुए (मनसा) विज्ञान से मैं आपको (जोहवीमि) अत्यन्त पुकारता हूँ, वह आप (महे) बड़ी (सुविताय) प्रेरणा के लिये (नः) हम लोगों को (आ, याहि) सब प्रकार से प्राप्त हूजिये ॥३॥
भावार्थभाषाः - हे राजन् ! आप उत्तम मनुष्यों के साथ वैद्यों की उत्तम प्रकार परीक्षा कर, उत्तम रसों और अन्नों को सम्पन्न कर उनका भोजन कर, एकमत कर और प्रजाजनों की रक्षा करके अत्यन्त ऐश्वर्य्य को प्राप्त होकर हम लोगों को भी धनयुक्त करिये ॥३॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुना राजा राजजनाश्च किं कुर्युरित्याह ॥

अन्वय:

हे इन्द्र ! वहिष्ठा हरयो समिद्धेऽग्नौ सुते सोमे त्वा त्वामाऽऽवहन्तु। हे इन्द्र ! यंत्वायता मनसाऽहं त्वां जोहवीमि स त्वं महे सुविताय न आ याहि ॥३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (समिद्धे) सम्यक् प्रदीप्ते (अग्नौ) पावके (सुते) निष्पन्ने (इन्द्र) परमैश्वर्यप्रद (सोमे) उक्ते महौषधिरसे (आ) (त्वा) त्वाम् (वहन्तु) प्रापयन्तु (हरयः) अश्वा इव मनुष्याः (वहिष्ठाः) अतिशयेन वोढारः (त्वायता) त्वां प्राप्तेन (मनसा) विज्ञानेन (जोहवीमि) भृशमाह्वयामि (इन्द्र) दुःखदारिद्र्यविदारक (आ) (याहि) समन्तादागच्छ (सुविताय) प्रेरणायै (महे) महते (नः) अस्मान् ॥३॥
भावार्थभाषाः - हे राजन् ! त्वमुत्तमैर्मनुष्यैस्सह वैद्यान्सुपरीक्ष्योत्तमान् रसानन्नानि च सम्पाद्य भुक्त्वैक्यमतं कृत्वा प्रजाजनान् रक्षित्वा महदैश्वर्यं प्राप्याऽस्मानपि श्रीमतः सम्पादय ॥३॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे राजा ! तू उत्तम लोकांसह वैद्याची उत्तम प्रकारे परीक्षा करून उत्तम रस व अन्न तयार करून त्यांचे भोजन करून एकमताने प्रजेचे रक्षण करून अत्यंत ऐश्वर्य प्राप्त कर व आम्हाला श्रीमंत कर. ॥ ३ ॥